Frequently Asked Question's

पारद श्वेत रंग की चमकदार द्रव धातु है. द्रव रूप और चाँदी के समान चमकदार होने के कारण पुरातन युग से पारद कौतूहल का विषय रहा है। लगभग १,५०० ईसवी पूर्व में बने मिस्र के मकबरों में पारद प्राप्त हुआ है। भारत में इस तत्व का प्राचीन काल से वर्णन हुआ है। चरक संहिता में दो स्थानों पर इसे ‘रस’ और ‘रसोत्तम’ नाम से संबोधित किया गया है। वाग्भट ने औषध बनाने में पारद का वर्णन किया है। वृन्द ने सिद्धयोग में कीटमारक औषधियों में पारद का उपयोग बताया है। तांत्रिक काल (७०० ई. से लेकर १३०० ई.) में पारद का बहुत उल्लेख मिलता है। इस काल में पारद को बहुत महत्ता दी गई। पारद की ओषधियाँ शरीर की व्याधियाँ दूर करने के लिये संस्तुत की गई हैं। तांत्रिक काल के ग्रंथों में पारद के लिये ‘रस’ शब्द का उपयोग हुआ है। इस काल की पुस्तकों के अनुसार पारद से न केवल अन्य धातुओं के गुण सुधर सकते हैं वरन् उसमें मनुष्य के शरीर को अजर बनाने की शक्ति है। नागार्जुन द्वारा लिखित रसरत्नसमुच्चय नामक ग्रंथ में पारद की अन्य धातुओं से शुद्ध करने तथा उससे बनी अनेक ओषधियों का विस्तृत वर्णन मिलता है। तत्पश्चात् अन्य ग्रंथों में पारद की भस्मों तथा अन्य यौगिकों का प्रचुर वर्णन रहा है।

पारे का वर्णन चीन के प्राचीन ग्रंथों में भी हुआ है। यूनान के दार्शनिक थिओफ्रेस्टस ने ईसा से ३०० वर्ष पूर्व ‘द्रव चाँदी’ (quicksilver) का उल्लेख किया था, जिसे सिनेबार (HgS) को सिरके से मिलाने से प्राप्त किया गया था। बुध (Mercury) ग्रह के आधार पर इस तत्व का नाम ‘मरकरी’ रखा गया। इसका रासायनिक संकेत (Hg) लैटिन शब्द हाइड्रारजिरम (hydrargyrum) पर आधारित है।

पुराणों और वैद्यक की पोथियों में पारे की उत्पत्ति शिव के वीर्य से कही गई है और उसका बड़ा माहात्म्य बताया गया है, यहाँ तक कि यह ब्रह्म या शिवस्वरूप कहा गया है । पारे को लेकर एक रसेश्वर दर्शन ही खड़ा किया गया है जिसमें पारे ही से सृष्टि की उत्पत्ति कही गई है और पिंडस्थैर्य (शरीर को स्थिर रखना) तथा उसके द्वारा मुक्ति की प्राप्ति के लिये रससाधन ही उपाय बताया गया है

रसचण्डाशुः नामक ग्रन्थ में कहा गया है-

शताश्वमेधेन कृतेन पुण्यं गोकोटिभि: स्वर्णसहस्रदानात।
नृणां भवेत् सूतकदर्शनेन यत्सर्वतीर्थेषु कृताभिषेकात्॥6॥

अर्थात सौ अश्वमेध यज्ञ करने के बाद, एक करोड़ गाय दान देने के बाद या स्वर्ण की एक हजार मुद्राएँ दान देने के पश्चात् तथा सभी तीर्थों के जल से अभिषेक (स्नान) करने के फलस्वरूप जो जो पुण्य प्राप्त होता है, वही पुण्य केवल पारद के दर्शन मात्र से होता है।

स्कंद पुराण, रस रत्नाकर, निघंटु प्रकाश, शिवनिर्णय रत्नाकर आदि प्राचीन भारतीय ग्रंथ के अनुसार पारद निर्मित शिवलिंग, पारद शंख, पारद श्रीयंत्र, पारद गुटिका, पारद पेंडेंट, पारद पिरामिड, पारद लक्ष्मी गणेश, पारद पात्र,पारद मुद्रिक इत्यादि के उपयोग से चमत्कारिक लाभ प्राप्त होते हैं।

ग्रंथो के ही अनुसार पारद के प्रयोग करने से पहले उसका संस्कारित (सुधिकरण एवं ऊर्जावान ) होना भी अत्यंत आवश्यक है। अगर पारद अष्ट-संस्कारित (सिद्ध) हो तो प्राप्त होने वाले लाभ की तुलना नहीं की जा सकती है। संस्कारित पारद दर्शन, धारण एवं पूजन के लिये महा कल्याणकारी माना गया है. इसी प्रकार संस्कारित पारद से बनी अन्य वस्तुएं जैसे की पारद शिवलिंग, पारद शंख, पारद श्रीयंत्र, इत्यादि के उपयोग से जीवन में इच्छित फलो की प्राप्ती संभव होती हैं।

आज के व्यस्त युग में जहां मनुष्य के लिये जटिल और विधिसम्मत पूजापाठ करना और करवाना मुश्किल सा हो गया है. ऐसे में संस्कारित पारद का दर्शन, धारण एवं अन्य उपयोग सुखी और समृद्ध जीवन के लिये अमोघ उपाय है।

किन्तु पारद के वास्तविक संस्कारित होने और जातक के जन्म नक्षत्र अथवा गोचर के अनुरूप उसका विशेष मन्त्रों के जाप के साथ अभिमंत्रित होने से ही जातक को उसके वास्तविक पुण्यों की प्राप्ति होती है.

इस हेतु Dhumra Gems द्वारा पारद शिवलिंग, यंत्रों, गुटिका और माला आदि का निर्माण का अंतिम चरण तभी पूर्ण किया जाता है जब इच्छुक जातक द्वारा अपना जन्म विवरण आदि भेजकर उसके पूर्ण अभिमंत्रित करने का निवेदन किया जाता है. इस कारण हमारे प्रयोगशाला से यज्ञशाला और वहां से जातक तक पहुँचने में लगभग 2 – 3 सप्ताह का समय अतरिक्त लग जाता है.

संस्कार: प्राकृतिक प्राप्त होने वाले पारद की शुद्धिकरण प्रक्रिया के विभिन्न चरणों को संस्कार कहा जाता है। संस्कार के बाद पारा विभिन्न दोषों से मुक्त हो जाता है और प्रकृति में दिव्य हो जाता है। सामान्य अवस्था में पारे में पाए जाने वाले 8 दोष होते हैं।

1- नाग दोष – लेड / सीसा की उपस्थिति। 

2- वंग दोष – टिन की उपस्थिति। 

3- मल दोष – अन्य धातु की उपस्तिथि जैसे आर्सेनिक, सोडियम आदि।

४- वाहि दोष – विषयुक्त पदार्थ जैसे संखिया, जस्ता आदि की उपस्थिति। 

५- चंचलता – पारद अपार चंचल होता है जो स्वयं में अशुद्धता है।

6- विष दोष – पारद में संयुक्त रूप में कई जहरीले तत्व होते हैं जो व्यक्ति को मृत कर सकते हैं।

7- गिरी दोष – पारद में अपने अस्तित्व और परिवेश के अनुसार कई अशुद्धियाँ होती हैं। 

8- अग्नि दोष – पारद 357 डिग्री सेल्सियस पर वाष्पित हो जाता है जो स्वयं एक अशुद्धता है। 

अतः संस्कारों को पारद को शुद्ध और फलदायी बनाने के लिए करना  आवश्यक होता है. 

इन 8 संस्कारों को पारा सभी दोषों से मुक्त होता है और अभ्रक, स्वर्ण माक्षिक और हर्बल अर्क के साथ संयुक्त किया जाता है। यह पूरी तरह से जस्ता, सीसा या टिन से मुक्त होता है। जिन्हें रसशास्त्र की पाठ्यपुस्तकों में पारद के दोषों के रूप में वर्णित किया गया है। इस पारद को कपड़े या अपने हाथ पर रगड़ने से किसी भी प्रकार का कालापन नहीं दिखेगा

सामान्य अवस्था में पाया जाने वाले पारा को यदि गर्म किया जाये तो 356.7 डिग्री सेंटीग्रेट पर वह उबल कर वाष्पीकृत होने लगता है. किन्तु पूर्ण शास्त्रीय विधि से अष्ट संस्कारित ठोस पारद का क्वथनांक लगभग 980 डिग्री सेंटीग्रेट हो जाता है. अर्थात चांदी के गलनांक से भी ज्यादा. इस प्रकार के पारद को अग्निस्थायी पारद कहा जाता है. इसकी रस शास्त्रों, तंत्र ग्रंथों और आयुर्वेद में अपरम्पार महिमा बताई गयी है

पारद (रस) के कुल 18 संस्कार संपन्न किये जाते हैं जिनमे पहले आठ संस्कार रोग मुक्ति हेतु, औषधि निर्माण, रसायन और धातुवाद के लिए आवश्यक हैं जबकि शेष 10 संस्कार खेचरी सिद्धि , धातु परिवर्तन, सिद्ध सूत और स्वर्ण बनाने में प्रयुक्त होते हैं।

आचार्यो ने जो 18 संस्कार बताए हैं वे निम्नलिखित हैं –

1) स्वेदन2) मर्दन3) मूर्च्छन4) उत्थापन5) त्रिविधपातन6) रोधन7) नियामन8) संदीपन9) गगनभक्षण
10) संचारण11) गर्भदुती12) बार्ह्यादुती13) जारण14) रंजन15) सारण16) संक्रामण17) वेधन18) शरीरयोग
1- स्वेदन :
दोलायंत्र में विभिन्न प्रकार के क्षारीय या अम्लीय द्रवों को औषधियों को भरकर उसमे पारद को पोटली में बंदकर युक्तिपूर्वक पकाने को स्वेदन कहा जाता है. इसमें पिप्प्ली, मरीच , चित्रक , अदरख, सोंठ, सैंधा नमक, त्रिफला, कांजी आदि औषधियों का प्रयोग किया जाता है. इसमें तीन दिन का समय लगता है.
 
2- मर्दन :
क्षार आदि औषधि द्रव्यों के साथ पारद को खरल में डाल कर पिसने को मर्दन कहा जाता है. ईंट का चूर्ण, सैन्धानमक, हल्दी, घर का धुंवा, गुड राइ सोंठ आदि औषधियों के प्रयोग के साथ इस संस्कार में तीन दिन लगते हैं.
 

3- मूर्च्छन :

पारद के मल, बह्रि तथा विष दोषों को दूर करने के लिए घिक्वार आदि द्रवों के साथ पारद का मर्दन करते हुए नष्टपिष्ट करना मूर्च्छन संस्कार कहलाता है. जावाख्वार, सज्जीखार, पांचों नमक तथा अम्ल द्रव के प्रयोग से इस संस्कार में तीन दिन लगते है.
 

4- उत्थापन :

पारद को जम्बिरी निम्बू अथवा बिजोरा निम्बू आदि अम्ल्द्रवों के साथ तीन पहर तक धुप में मर्दन करके कपडे से छान लेने पर इसकी मूर्च्छा दूर होकर उत्थापन हो जाता है. जम्बिरी निम्बू, बिजोरा निम्बू आदि अम्लद्रवों के साथ होने वाले इस संस्कार में तीन प्रहर का समय लगता है.
 

5- त्रिविधपातन:

पातन करने के निमित्त कही गयी औषधियों के साथ पारद को मर्दन कर यन्त्र में रख कर उर्ध्व, अध: व् तिर्यक रूप से पातन कर लेने को त्रिविधपातन कहा जाता है. हरीतकी, विभीतक, राई , सैंधा नमक, चित्रक, सहेजने के बीज, अम्ल्द्रव के साथ होने वाले इस संस्कार में तीन प्रहर का समय लगता है.
 

6- रोधन :

मर्दन, पातन आदि संस्कारों के द्वारा पारद में एक प्रकार की नपुंसकता आ जाती है. इस नपुंसकता को दूर करने हेतु किये जाने वाले संस्कार को बोधन या रोधन कहते हैं. पारद को भोजपत्र में रख कपडे की पोटली में बांध कर सैंधा नमक और जल के साथ मंद आंच में पकाने पर रोधन संस्कार होता है.
 

7- नियामन :

बोधन संस्कार द्वारा लब्धवीर्य पारद के चापल्य दोष को दूर करने हेतु पारद का नियामन संस्कार किया जाता है. इसमें भृंगराज, नागरमोथा, बाँझ ककोडा और अन्य जड़ी बूटियों के रस के साथ दोलायंत्र में ये संस्कार पूर्ण किया जाता है.
 

8- संदीपन या दीपन संस्कार : 

दोलायंत्र में क्षार आदि औषधि द्रवों को भरकर उसमे पारद को इतना स्वेदन किया जाये की वह धातुओं का ग्रास कर सके, इस क्रिया को संदीपन या दीपन कहते हैं. चित्रक क्वाथ तथा कांजी में तीन दिन तक पारद का स्वेदन किया जाये तो उसमे धातु ग्रास करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है. इस क्रिया में दो दिन का समय लगता है.

पारद गुटिका : अष्ट संस्कारित पारद को मोती की भांति गोल करके उसमें बीच के छेद बना कर उसको धागे में पिरोकर गले, बाजू आदि में धारण किया जाता है। वास्तु दोष निवारण के लिए उसको गृह में भी स्थापित किया जाता है। इसे ही गुटिका कहा गया है।

रसमणी: रसमणि भी अष्ट संस्कारित पारद गुटिका ही होती है। किन्तु इसके बंधन में तत्व संयोजन का अनुपात श्रेष्ठ होता है। इसमें हीरक भस्म, स्वर्ण भस्म और रजत भस्म तीनो एक निश्चित अनुपात में मिलाई जाती हैं। एक प्रकार से यह अष्ट संस्कारित पारद को हीरक ग्रास, स्वर्ण ग्रास और रजत ग्रास तीनो दिए गए होते हैं। इसलिए यह अनुपात में ज्यादा कीमती भी होता है।
इसका प्रभाव रजत ग्रास वाली गुटिका से हजारों गुना ज्यादा होता है। इसकी आभा भी पारद गुटिका से अत्यधिक ज्यादा होता है।

यद्यपि शिव महापुराण और लिंग पुराण में पूजन हेतु मिट्टी से बने पार्थिव शिवलिंग से लेकर पारद शिवलिंग तक सभी प्रकार के शिवलिंगों का पूजन पूर्ण प्रभावी बताया गया है। किन्तु पूर्ण अष्ट संस्कारित पारद शिवलिंग के दर्शन मात्र की सबसे ज्यादा महत्ता बताई गई है।
पारद शिवलिंग की बात की जाए तो मात्र अष्ट संस्कारित पारद से निर्मित शिवलिंग ही पूजन योग्य है। क्यूंकि ऐसा पारद अपनी नैसर्गिक विषाक्तता से मुक्ति पाकर जीव मात्र के लिए जीवन प्रदाता बन जाता है। अष्ट संस्कारित पारद का प्रयोग प्राचीन काल से वैद्य अत्यन्त महत्वपूर्ण औषधियां बनाने में करते आएं हैं। ऐसा पारद भौतिक रूप से न केवल जीवन प्रदाता है अपितु मानसिक और आध्यात्मिक रूप से भी व्यक्ति को शांति और मुक्ति प्रदान करता है।

वास्तविक अष्ट संस्कारित पारद शिवलिंग की पहचान की कुछ मुख्य विधियां निम्न हैं:
1. ऐसा शिवलिंग हाथ या कपड़े पर कालिख नहीं छोड़ता। यद्यपि काफी दिनों तक बिना इस्तेमाल किया शिवलिंग या गुटिका पहली बार में अल्प मात्रा में कालिख दे सकती है क्यूंकि वह लिपटे हुए रूई या कपड़े से या खुले वातावरण से थोड़ा बहुत तत्वों को खींच लेता है। परंतु एक बार जल से साफ होने के बाद वह दोबारा कालिख नहीं देता। किन्तु पहली बार ऐसा , ये भी आवश्यक नहीं।
2. चूंकि अष्ट संस्कारित पारद पूर्ण रूप से विष मुक्त हो जाता है, और इसका प्रयोग औषधि निर्माण में भी होता है। इसलिए इससे निर्मित शिवलिंग पर जल दूध दही शहद रस आदि चढ़ाने और फिर उसको ग्रहण करने में कोई हानि दोष नहीं होता। किन्तु इसकी स्पष्ट पहचान यह है कि ऐसे अष्ट संस्कारित पारद से निर्मित गुटिका को दूध में उबाल जाए तो शुद्ध होने के कारण वह दुश को खराब नहीं करता। अपितु ऐसे उबल दूध की शेल्फ लाइफ बढ़ जाती है। आयुर्वेद ग्रन्थों में वर्णित है की दूध में अष्ट संस्कारित पारद गुटिका को एक निश्चित समय तक डुबोकर उसको पीने से शरीर की गंभीर व्याधियों से मुक्ति मिलती है।
3. अष्ट संस्कारित पारद से निर्मित शिवलिंग पर यदि सामान्य पारा डाला जाए तो वह उसमे से ऐसे आर पार निकल जाता है जैसे कपड़े से छनकर पानी। किन्तु अन्य द्रव पदार्थों को वह रोककर रखता है।
4. यदि शिवलिंग में पारद है ही नहीं, बल्कि समान लगने वाली कोई और धातु जैसे स्टील आदि है तो वह स्वर्ण ग्रास नहीं करेगा।
5. यदि प्रयोगकर्ता ध्यान साधना करता है तो प्रथम बार में ही वह अनुभव करेगा की वास्तविक शिवलिंग के सामने बैठ कर ध्यान तेजी से और अत्यधिक गहरा लगता है। उसे अपने शक्ति चक्रों में स्पंदन स्पष्ट अनुभव होगा।

पारद शिवलिंग या पारदेश्वर शिवलिंग एवं नर्वदेश्वर शिवलिंग दोनों ही पूर्ण रूप से जागृत होते हैं | एवं उनकी प्राण प्रतिष्ठा करने की आवश्यकता नहीं होती ।पारद शिवलिंग और नर्मदेश्वर शिवलिंग के अलावा किसी भी शिवलिंग पर अर्पित किया गया प्रसाद चण्डेश्वर का एक भाग होता है। और इस प्रसाद को ग्रहण का अर्थ है भूत प्रेतों के अंश को ग्रहण कर लेना। अतः किसी भी प्रकार के पत्थर, मिट्टी और चीनी मिट्टी से बने शिवलिंग पर चढ़ा हुआ प्रसाद नहीं खाना चाहिए। किंतु नर्वदेश्वर और पारदेश्वर यानी पारद शिवलिंग पर चढ़ा हुआ प्रसाद स्वयं महादेव को चढ़ता है अतः इसे बिना किसी संकोच के सह परिवार ग्रहण करना चाहिए। अतः घर में पारद शिवलिंग स्थापित करने के लिए श्रेष्ठ हैं | 

प्राकृतिक रूप से पाए जाने पारद में भिन्न – भिन्न प्रकार की अशुद्धियाँ होती है| अगर पारद को सस्त्रो में वर्णित पद्धती के द्वारा 8 संस्कार किये बिना पारद शिवलिंग का निर्माण किया जाये तो वह पूजन एवं प्रयोग के लिए योग्य नहीं होंगे | अतः पारद को अष्ट संस्कार (8 संस्कार) के उपरांत निर्माण किये गए शिवलिंग या गुटिका का प्रयोग ही फलदाई व उत्तम रहता है | 

जब प्रकृति में पाए जाने वाले पारद (mercury metal) को अष्ट संस्कार के द्वारा शुद्धतम अवस्था में पहुंचा दिया जाता है तो वह अमृततुल्य और पूजनीय हो जाता है। इस से निर्मित शिवलिंग को पारद शिवलिंग या पारादेश्वर महादेव कहते हैं। पारद शिवलिंग बनाने के लिए अष्ट संस्कारित पारद में निश्चित अनुपात में चांदी / स्वर्ण या हीरक का प्रयोग किया जाता है।
मूल्य को सर्वजन की पहुँच के लिए सर्वाधिक रूप से पारद और चांदी मिश्रित शिवलिंग बनाए हैं। शास्त्रों में पारद शिवलिंग को सर्वाधिक प्रभावशाली बताया गया है और ऐसा कहा गया कि इसके दर्शन मात्र से अनंत यज्ञों का फल प्राप्त होता है। ऐसा वर्णित है कि जिस घर में भी पारद शिवलिंग स्थापित हो वहां साक्षात भोलेनाथ निवास करते हैं और केवल भगवान शिव ही नहीं माता लक्ष्मी और कुबेर देवता का भी उस स्थान पर वास होता है|

पारद का अष्ट संस्कार करके उसको जागृत और पूजनीय बनाने में करीब 20 से 25 दिन लगते हैं । इसलिए आमतौर पर असली पारद शिवलिंग की कीमत नकली पारद शिवलिंग के मुकाबले काफी ज्यादा होती है। किंतु किसी भी साधक को नकली पारद शिवलिंग से हमेशा बचना चाहिए क्योंकि वह कैंसर जैसी भयानक बीमारी का कारण बन सकता है।

वैसे तो अष्ट संस्कारित पारद से निर्मित शिवलिंग कभी अशुद्ध नहीं होता। किंतु लगातार दूध दही शहद आदि से अभिषेक करते रहने के कारण और जल में उपस्थित विभिन्न तत्वों के कारण उस पर चिकनाई आदि जम जाती है। ऐसी अवस्था में पारद शिवलिंग को साफ करने के लिए सामान्य रूप से एक नींबू रस को छिलके के माध्यम से हल्के हाथ से इसे रगड़ने पर पारद शिवलिंग के ऊपर जमा हुई चिकनाई आदि गंदगी हट जाती है। और वह पुनः चमकने लगता है

वैसे तो पारद शिवलिंग की स्थापना के लिए महाशिवरात्रि सर्वश्रेष्ठ अवसर होती है। इसके अलावा सावन या फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष में किसी भी दिन स्थापना कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त किसी भी सोमवार अथवा प्रदोष काल में इसकी स्थापना की जा सकती है।

वास्तव में शिवलिंग परमात्मा के निराकार सर्वव्यापी स्वरूप का प्रतीक है। शिवलिंग अंडाकार है क्योंकि शिव ही वह बीज है जिसने सृष्टि का निर्माण किया। यही कारण है शिव से सम्बंधित वह बीज अंडाकार है। वहीँ वैज्ञानिकों की मानें तो इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण एक छोटे से अंडे से हुआ है।

क्या शिवलिंग पर चढ़ा हुआ प्रसाद खाना चाहिए? – नर्मदेश्वर और पारदेश्वर यानी पारद शिवलिंग के अलावा किसी भी शिवलिंग पर अर्पित किया गया प्रसाद चण्डेश्वर का एक भाग होता है। और इस प्रसाद को ग्रहण का अर्थ है भूत प्रेतों के अंश को ग्रहण कर लेना। अतः पत्थर, मिट्टी और चीनी मिट्टी से बने शिवलिंग पर चढ़ा हुआ प्रसाद नहीं खाना चाहिए। किंतु नर्वदेश्वर और पारदेश्वर यानी पारद शिवलिंग पर चढ़ा हुआ प्रसाद स्वयं महादेव को चढ़ता है अतः इसे बिना किसी संकोच के सह परिवार ग्रहण करना चाहिए।

1. प्रातःकाल स्नान कर शिवलिंग को मंदिर में स्थापित करें।
2. उसके बाद भगवान शिव की प्रतिमा के सामने दीपक और धुप जलाएं।
3. फिर शिवलिंग पर जलाभिषेक करें और पंचामृत भी चढ़ाएं।
4. पंचामृत से जलाभिषेक के बाद शिवलिंग पर बेलपत्र भी अर्पित करें।
5. ध्यान रहे घर में स्थापित होने वाले शिवलिंग का आकार 3 इंच से बड़ा नहीं होना चाहिए।
6. शिवलिंग को कहीं भी स्थापित किया जाये उसकी वेदी का मुख उत्तर दिशा की ओर ही होना चाहिए।

मंदिर में शिवलिंग रखने के लिए उसके आकार को ध्यान में रखना जरूरी नहीं है जबकि घर पर शिवलिंग अंगुष्ठ प्रमाण हो यानी अंगूठे से बड़ा ना हो। इसका कारण यह है कि शिवलिंग एक अग्नि स्तम्भ माना जाता है और इस कारण यदि बड़े आकार का शिवलिंग घर में रखा जाए तो उसमें समाहित वह ज्वलंत शक्ति हानिकारक साबित हो सकती है।

  • नवपाषाणम को अत्यधिक उच्च सकारात्मक ऊर्जा के लिए जाना जाता है | इसे एक उत्कृष्ट औषधि के रूप में भी माना जाता है। नवपाषाणम आत्म को जगाने के लिए एक उत्प्रेरक के रूप में कार्य करता है जो तब नकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित करना जानता है।
  • नवपाषाणम आध्यात्मिक ऊर्जा को बढ़ाता है और कुंडलिनी चक्रों को संपादित करता है।
  • यह कुंडलिनी को जगाने में सहायक होता है।
  • नवपाषाणम धारण करने से नकारात्मक ऊर्जा का  प्रभाव निम्न हो जाता है। यह पर्यावरण की मुक्त नकारात्मक ऊर्जा से पूर्ण सुरक्षा प्रदान करता है।
  • गोरक्ष संहिता के अनुसार, इसका उपयोग कई दोषों को दूर करने के लिए किया जा सकता है। जैसे मंगल दोष, पितृ दोष, काल सर्प दोष और पाप ग्रहों से संबंधित कई समस्याएं।
  • नवपाषाणम को धारण करने से पूर्ण सकारात्मक ऊर्जा, तीव्र मस्तिष्क और स्वस्थ शरीर मिलता है।
  • यह साधना में विशेष रूप से फलदायी होता है और मनोकामना और सफलता लाता है।

नवपाषाणम का निर्माण अष्ट संस्कारित पारद के साथ नौ प्राकृतिक दिव्य तत्वों (जोकि औषधि स्वरूप होते हैं) को मिलाकर किया जाता है।
इसके द्वारा चार्ज्ड जल का दैनिक जीवन में प्रयोग करना स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त लाभकारी होता है। इसके लिए नवपाषाणम शिवलिंग पर प्रतिदिन जल का अभिषेक करके उस जल को पीना चाहिए। अथवा नवपाषाणम गुटिका को एक निश्चित समय तक पीने वाले पानी में डुबोकर, फिर उस पानी को पीने में इस्तेमाल करने से शरीर पर अत्यन्त लाभकारी प्रभाव पड़ते हैं।
नवपाषाणम का जल शरीर में जाकर वात पित्त कफ को संतुलित करता है। सर्वप्रथम पाचन क्रिया में सकारात्मक परिवर्तन होता है। उसके बाद धीरे धीरे शरीर के सभी तंत्रों की क्रियाविधि में संतुलन उत्पन्न होने लगता है। व्यक्ति के शरीर से विषैले तत्व निकल जाते हैं । उसके प्रभाव से व्यक्ति युवा दिखने लगता है, उसकी क्षमता बढ़ जाती है।

*इसका प्रयोग किसी वैद्य या डॉक्टर के सानिध्य में करना उचित होता है, क्यूंकि ली जाने वाली मात्रा का उचित निर्णय, आपकी प्रवति के अनुसार वही ले सकते हैं ।

एक ही धागे में दोनो प्रकार की गुटिका धारण करने से पारद गुटिका दूषित हो जायेगी। वह नवापाषाणम गुटिका से तत्वों का ग्रास कर लेगी तदोपरांत कालिख भी देने लगेगी।
दोनो का तत्व संयोजन बिलकुल भिन्न प्रकार का है। पारद गुटिका से पारद, नवापाषाणम गुटिका में चला जायेगा जिसके फलस्वरूप नवापाषाणम गुटिका नर्म हो जायेगी, सफेद हो जाएगी एवं टूट जायेगी।।

दोनो को अलग-अलग धागे में भी एक साथ नहीं पहनना उचित होगा ।।

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