Frequently Asked Question's
पारे का वर्णन चीन के प्राचीन ग्रंथों में भी हुआ है। यूनान के दार्शनिक थिओफ्रेस्टस ने ईसा से ३०० वर्ष पूर्व ‘द्रव चाँदी’ (quicksilver) का उल्लेख किया था, जिसे सिनेबार (HgS) को सिरके से मिलाने से प्राप्त किया गया था। बुध (Mercury) ग्रह के आधार पर इस तत्व का नाम ‘मरकरी’ रखा गया। इसका रासायनिक संकेत (Hg) लैटिन शब्द हाइड्रारजिरम (hydrargyrum) पर आधारित है।
पुराणों और वैद्यक की पोथियों में पारे की उत्पत्ति शिव के वीर्य से कही गई है और उसका बड़ा माहात्म्य बताया गया है, यहाँ तक कि यह ब्रह्म या शिवस्वरूप कहा गया है । पारे को लेकर एक रसेश्वर दर्शन ही खड़ा किया गया है जिसमें पारे ही से सृष्टि की उत्पत्ति कही गई है और पिंडस्थैर्य (शरीर को स्थिर रखना) तथा उसके द्वारा मुक्ति की प्राप्ति के लिये रससाधन ही उपाय बताया गया है
रसचण्डाशुः नामक ग्रन्थ में कहा गया है-
शताश्वमेधेन कृतेन पुण्यं गोकोटिभि: स्वर्णसहस्रदानात।
नृणां भवेत् सूतकदर्शनेन यत्सर्वतीर्थेषु कृताभिषेकात्॥6॥
अर्थात सौ अश्वमेध यज्ञ करने के बाद, एक करोड़ गाय दान देने के बाद या स्वर्ण की एक हजार मुद्राएँ दान देने के पश्चात् तथा सभी तीर्थों के जल से अभिषेक (स्नान) करने के फलस्वरूप जो जो पुण्य प्राप्त होता है, वही पुण्य केवल पारद के दर्शन मात्र से होता है।
स्कंद पुराण, रस रत्नाकर, निघंटु प्रकाश, शिवनिर्णय रत्नाकर आदि प्राचीन भारतीय ग्रंथ के अनुसार पारद निर्मित शिवलिंग, पारद शंख, पारद श्रीयंत्र, पारद गुटिका, पारद पेंडेंट, पारद पिरामिड, पारद लक्ष्मी गणेश, पारद पात्र,पारद मुद्रिक इत्यादि के उपयोग से चमत्कारिक लाभ प्राप्त होते हैं।
ग्रंथो के ही अनुसार पारद के प्रयोग करने से पहले उसका संस्कारित (सुधिकरण एवं ऊर्जावान ) होना भी अत्यंत आवश्यक है। अगर पारद अष्ट-संस्कारित (सिद्ध) हो तो प्राप्त होने वाले लाभ की तुलना नहीं की जा सकती है। संस्कारित पारद दर्शन, धारण एवं पूजन के लिये महा कल्याणकारी माना गया है. इसी प्रकार संस्कारित पारद से बनी अन्य वस्तुएं जैसे की पारद शिवलिंग, पारद शंख, पारद श्रीयंत्र, इत्यादि के उपयोग से जीवन में इच्छित फलो की प्राप्ती संभव होती हैं।
आज के व्यस्त युग में जहां मनुष्य के लिये जटिल और विधिसम्मत पूजापाठ करना और करवाना मुश्किल सा हो गया है. ऐसे में संस्कारित पारद का दर्शन, धारण एवं अन्य उपयोग सुखी और समृद्ध जीवन के लिये अमोघ उपाय है।
किन्तु पारद के वास्तविक संस्कारित होने और जातक के जन्म नक्षत्र अथवा गोचर के अनुरूप उसका विशेष मन्त्रों के जाप के साथ अभिमंत्रित होने से ही जातक को उसके वास्तविक पुण्यों की प्राप्ति होती है.
इस हेतु Dhumra Gems द्वारा पारद शिवलिंग, यंत्रों, गुटिका और माला आदि का निर्माण का अंतिम चरण तभी पूर्ण किया जाता है जब इच्छुक जातक द्वारा अपना जन्म विवरण आदि भेजकर उसके पूर्ण अभिमंत्रित करने का निवेदन किया जाता है. इस कारण हमारे प्रयोगशाला से यज्ञशाला और वहां से जातक तक पहुँचने में लगभग 2 – 3 सप्ताह का समय अतरिक्त लग जाता है.
संस्कार: प्राकृतिक प्राप्त होने वाले पारद की शुद्धिकरण प्रक्रिया के विभिन्न चरणों को संस्कार कहा जाता है। संस्कार के बाद पारा विभिन्न दोषों से मुक्त हो जाता है और प्रकृति में दिव्य हो जाता है। सामान्य अवस्था में पारे में पाए जाने वाले 8 दोष होते हैं।
1- नाग दोष – लेड / सीसा की उपस्थिति।
2- वंग दोष – टिन की उपस्थिति।
3- मल दोष – अन्य धातु की उपस्तिथि जैसे आर्सेनिक, सोडियम आदि।
४- वाहि दोष – विषयुक्त पदार्थ जैसे संखिया, जस्ता आदि की उपस्थिति।
५- चंचलता – पारद अपार चंचल होता है जो स्वयं में अशुद्धता है।
6- विष दोष – पारद में संयुक्त रूप में कई जहरीले तत्व होते हैं जो व्यक्ति को मृत कर सकते हैं।
7- गिरी दोष – पारद में अपने अस्तित्व और परिवेश के अनुसार कई अशुद्धियाँ होती हैं।
8- अग्नि दोष – पारद 357 डिग्री सेल्सियस पर वाष्पित हो जाता है जो स्वयं एक अशुद्धता है।
अतः संस्कारों को पारद को शुद्ध और फलदायी बनाने के लिए करना आवश्यक होता है.
इन 8 संस्कारों को पारा सभी दोषों से मुक्त होता है और अभ्रक, स्वर्ण माक्षिक और हर्बल अर्क के साथ संयुक्त किया जाता है। यह पूरी तरह से जस्ता, सीसा या टिन से मुक्त होता है। जिन्हें रसशास्त्र की पाठ्यपुस्तकों में पारद के दोषों के रूप में वर्णित किया गया है। इस पारद को कपड़े या अपने हाथ पर रगड़ने से किसी भी प्रकार का कालापन नहीं दिखेगा।
सामान्य अवस्था में पाया जाने वाले पारा को यदि गर्म किया जाये तो 356.7 डिग्री सेंटीग्रेट पर वह उबल कर वाष्पीकृत होने लगता है. किन्तु पूर्ण शास्त्रीय विधि से अष्ट संस्कारित ठोस पारद का क्वथनांक लगभग 980 डिग्री सेंटीग्रेट हो जाता है. अर्थात चांदी के गलनांक से भी ज्यादा. इस प्रकार के पारद को अग्निस्थायी पारद कहा जाता है. इसकी रस शास्त्रों, तंत्र ग्रंथों और आयुर्वेद में अपरम्पार महिमा बताई गयी है
आचार्यो ने जो 18 संस्कार बताए हैं वे निम्नलिखित हैं –
1) स्वेदन | 2) मर्दन | 3) मूर्च्छन | 4) उत्थापन | 5) त्रिविधपातन | 6) रोधन | 7) नियामन | 8) संदीपन | 9) गगनभक्षण |
10) संचारण | 11) गर्भदुती | 12) बार्ह्यादुती | 13) जारण | 14) रंजन | 15) सारण | 16) संक्रामण | 17) वेधन | 18) शरीरयोग |
3- मूर्च्छन :
4- उत्थापन :
5- त्रिविधपातन:
6- रोधन :
7- नियामन :
8- संदीपन या दीपन संस्कार :